अष्टछाप के कवियों का जीवन परिचय

गोसाईं विट्ठलनाथ ने 1565 ई. में अष्टछाप की स्थापना की| अष्टछाप में विट्ठलनाथ के 4 शिष्य और सूरदास के चार शिष्य आते हैं। 

 गोसाईं विट्ठलनाथ के चार शिष्यों के नाम जो अष्टछाप में आते हैं इस प्रकार है गोविंदस्वामी, छितस्वामी, नंददास, चतुर्भुजदास। 

 सूरदास के चार शिष्यों के नाम जो अष्टछाप में आते हैं इस प्रकार है कुंभनदास, सूरदास, कृष्णदास, परमानंददास। 

 आठों भक्त कवि इतने सिद्ध एवं परम भगवती है कि इन्हें श्रीनाथ का अष्टसखा भी कहा जाता है। 

 मिश्र बंधुओं ने नागरीदास को अष्टछाप का नौवां कवि कहा है। 

 अष्टछापी कवियों का रचनाकाल सन 1500 से 1586 ईसवी तक माना जाता है।

 

कुंभनदास का जीवन परिचय 

 ये अष्टछाप में सबसे वरिष्ठ कवि हैं । 

 कुंभनदास जन्म 1468 ई. में और मृत्यु 1583 ई. में हुई। ये एक गौरवा छत्रिय थे। 

 इनका निवासस्थान जमुनावतै (उत्तर प्रदेश) था। इन्होंने 1499 ई. में वल्लभाचार्य से दीक्षा ली। 

कुंभनदास अष्टछाप के कवि और वल्लभाचार्य के शिष्य थे। ये महान संगीतज्ञ और अनासक्त गृहस्थ थे। एक बार अकबर ने इन्हें फतेहपुर सीकरी बुलाया जिस पर इन्हें बहुत ग्लानि हुई इन्होंने कहा था 

संतन कहा सीकरी सों काम 
आवत जात पन्हैया टूटी, बिसरि गयो हरिराम। 

सूरदास का जीवन परिचय

 आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “सूरदास ही ब्रजभाषा के प्रथम कवि हैं और लीलागान का महान समुद्र ‘सूरसागर’ ही उसका प्रथम काव्य है।” 

 सूरदास का जन्म 1478 में और मृत्यु 1583 में हुई। ये बल्लभाचार्य से 10 दिन ही छोटे थे। 

 सूरदास के जन्म स्थान के संबंध में दो मत है, जो निम्न है- 

  •  श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ला और हजारी प्रसाद द्विवेदी सूरदास का जन्म स्थान रुनकता (गऊघाट) मानते हैं 
  •  वार्ता साहित्य, डॉ नगेंद्र और गणपति चंद्रगुप्त सूरदास का जन्मस्थान सीही मानते हैं।

 सूरदास की रचनाओं का सर्वप्रथम सम्पादन कलकत्ता में सन् 1841 ई० में ‘रागकल्पद्रुम’ नाम से हुआ।

सूर की ‘वल्लभाचार्य’ से भेंट गऊघाट पर हुई थी। उन्होंने सूर को भगवद्भजन करने के लिए कहा तब सूर ने दो पद गाये थे ‘प्रभु हौं सब पतितन कौ टीकौ और हौं हरि सब पतितन को नायक’। इस पर वल्लभाचार्य ने कहा था- सुर ह्वै कै ऐसे घिघियात काहे को हौ, कछु भगवत लीला वर्णन करो।’ इस प्रकार, सूरदास लीला-वर्णन की ओर उन्मुख हुए। 

 सूरदास द्वारा रचित 25 ग्रन्थ बताया जाता है जिसमें कि तीन ही उपलब्ध है जो निम्न है – (1) सूरसागर, (2) सूरसारावली और (3) साहित्य लहरी। 

 सूरदासकृत सूरसागर का उपजीव्य ‘भागवत महापुराण’ का दशम स्कन्ध है।

 सूरसागर में 4936 पद तथा 12 स्कन्ध है। 

 सूरदास ने सूरसागर में तीन भ्रमर गीतों की योजना की है।

 प्रथम भ्रमरगीत (पद संख्या 4078 से 4710) ही मुख्य है। 

 शेष दो भ्रमरगीत

(क) पद संख्या 4711-4712 तथा 
(ख) 4713 कथात्मक है।

 भ्रमरगीत का सर्वप्रथम एक पूर्ण प्रसंग के रूप में वर्णन श्रीमद्भागवत के दशम् स्कन्ध के 47वें अध्याय के 12 से 21 श्लोक में मिलता है।

हिन्दी साहित्य में ‘भ्रमरगीत‘ काव्य परम्परा का प्रवर्तन सूरदास ने किया।

 सूरसागर के काव्य रूप के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों का मत निम्न है—

  •  डॉ. चंद्रबली पाण्डेय ने सुरसागर को लीला प्रबंधकाव्य या भाव प्रबंध काव्य कहा है।
  •  हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने सुरसागर को गीत काव्यात्मक मनोरागों पर आधारित विशाल महाकाव्य कहा है।
  •  ब्रजेश्वर वर्मा ने सुरसागर को कृष्णचरित का महाकाव्य कहा जाता है।
  •  सर्वसम्मति से सुरसागर को गेय मुक्तक काव्य कहा जाता है।

 ‘भ्रमरगीत’ में कुल 700 पद हैं। प्रो० मैनेजर पाण्डेय ने ‘भ्रमर’ का तीन रूप बताया है – 

  • (1) कृष्ण का प्रतीक
    (2) उद्धव का प्रतीक
    (3) स्वतंत्र रूप में। 

 ‘भ्रमरगीत’ को उपालम्भ काव्य भी कहते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे ‘ध्वनिकाव्य‘ कहा है।

 सूरसारावली में 1107 छंद है। इसकी रचना संसार को होली का रूपक मानकर की गयी है ।

 ‘साहित्य लहरी’ (1550 ई०) में अलंकार और नायिका भेदों के उदाहरण प्रस्तुत करने वाले 118 दृष्टिकूट पद हैं।

 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- “वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्र का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने बन्द आँखों से किया, उतना किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का कोना-कोना वे झाँक आए।”

 आचार्य शुक्ल ने लिखा है, “सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना । प्रसंगोद्भावना करने वाली ऐसी प्रतिभा हम तुलसी में नहीं पाते।” 

 शुक्लजी ने लिखा है, “आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ श्रीकृष्ण की प्रेमलीला कीर्तन करने उठी, जिनमें सबसे ऊँची, सुरीली और मधुर झंकार अन्धे कवि सूरदास की वीणा की थी।”

 आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “सूरदास जब अपने विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है। संगीत के प्रवाह में कवि स्वयं बह जाता है । “

 सूरदास की मृत्यु पर विट्ठलदास ने कहा था-

“पुष्टि मार्ग कौ जहाज जात है। 
जाय कछू लैनों होय सो लेउ ॥”

 

परमानंददास का जीवन परिचय

 परमानंददास का जन्म सन 1493 में कन्नौज में हुआ था। 

 परमानंददास के दीक्षा गुरु वल्लभाचार्य थे।

 परमानंददास कवि-कीर्त्तनकार के रूप में प्रसिद्ध थे।

 परमानंद की रचनाएँ 1. परमानंद सागर ( 835 पद) 2. परमानंद जी के पद 3. दानलीला 4. उद्धव-लीला 5. ध्रुवचरित्र और 6. संस्कृत रत्नमाला। 

 कृष्ण की बाललीलाओं का विशद् वर्णन के साथ-साथ इनके विरह-वर्णन संबंधित पद भी अत्यन्त उत्कृष्ट हैं। अष्टछाप के कवियों में सूर के उपरांत वात्सल्य रस का सर्वश्रेष्ठ चित्रण करनेवाले परमानंददास हुए

 अष्टछाप के कवियों में सूर एवं परमानंददास ही ऐसे दो कृष्णभक्त कवि हुए, जिन्होंने कृष्ण की संपूर्ण लीला पर रचनाएँ कीं।

 शुक्ल जी ने लिखा है कि- “ये अत्यन्त तन्मयता के साथ बड़ी सरल कविता करते थे।… इनके किसी एक पद को सुनकर आचार्य (वल्लभाचार्य) कई दिनों तक बदन की सुध भूले रहे थे।”

 काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से सूरदास एवं नंददास के उपरांत अष्टछाप के कवियों में इनका स्थान था

 इनको ये पद अत्यन्त प्रसिद्ध हैं-

(i) कहा करौं बैकुंठहि जाय
जहाँ नहिं नंद, जहाँ न जसोदा, नहिं जहँ गोपी ग्वाल न गाय । 
(ii) राधे जू हारावलि टूटी रस मदन नृपति की सेना लूटी।। 

कृष्णदास का जीवन परिचय

 कृष्णदास का जन्म 1496 ई. में हुआ था।

 कृष्णदास की मृत्यु 1578 ई. में हुई थी।

 कृष्णदास का जन्म गुजरात के चिलोतरा में हुआ था।

 अष्टछाप के कवियों में मुख्य ‘कृष्णदास’ थे इनके गुरु महाप्रभु वल्लभाचार्य की इन पर विशेष दया – दृष्टि थी ये श्रीनाथ मंदिर के अधिकारी थे। ये शूद्र ( कुनबी जाति के ) थे। इन्होंने मीराँ का अपमान भी एक बार किया था।

 कृष्णदास सूरदास की प्रतियोगिता में पद रचना करते थे।

 कृष्णदास के गुरु वल्लभाचार्य थे।

 रासलीला में कृष्णदास की विशेष आसक्ति थी, इसलिए इनके पद श्रिंगारिक होते थे।

 ‘जुगलमान चरित्र’ इनकी प्रसिद्ध रचना है । ”भ्रमरगीत’ एवं ‘प्रेमतत्त्व-निरूपण’ इनके दो अन्य ग्रंथ बताये जाते हैं। किसी बात पर विट्ठलनाथ से कहा-सुनी होने पर कृष्णदास ने इनकी ड्योढ़ी बंद करवा दी थी। इससे विट्ठलनाथ के कृपापात्र महाराज बीरबल ने अप्रसन्न होकर इन्हें कैद कर लिया था ।

 

गोविंदस्वामी का जीवन परिचय

 गोविंदस्वामी का जन्म 1505 ई. में राजस्थान के आंतरी नामक गाँव में हुआ था।

 गोविंदस्वामी की मृत्यु 1585 ई. में हुई थी।

 गोविंदस्वामी के गुरु विट्ठलनाथ थे।

 गोविंद स्वामी कवि, संगीतज्ञ एवं पक्के गवैये थे। इनके मनोहर गान को सुनने तथा संगीत सीखने के लिए तानसेन भी उपस्थित हुए थे। गान एवं पद-रचना के कारण इनकी ख्याति दूर-दूर तक थी। इन्होंने गोवर्द्धन पर्वत के पास कदंबों का उपवन लगाया था, जो गोविंद स्वामी की ‘कंदबखंड़ी‘ कहलाता है।

 विट्ठलनाथ की मृत्यु का समाचार सुनकर गोविंदस्वामी ने भी अपना शरीर त्याग दिया।

गोविंदस्वामी की प्रमुख पंक्ति इस प्रकार है-

फूलो पालने बलि जाऊँ 
श्याम सुंदर कमल लोचन, देखियत अति सुख पाऊँ

छीतस्वामी का जीवन परिचय

 छीतस्वामी का जन्म 1515 ई. में मथुरा के उत्तर प्रदेश में हुआ था।

 छीतस्वामी के गुरु विट्ठलनाथ थे।

 छीतस्वामी शैव थे। ये दुष्ट प्रवृत्ति के थे।

 विट्ठलनाथ के प्रभाव से इनका हृदय परिवर्तन हुआ और पुष्टि संप्रदाय में दीक्षित हुए।ये गोवर्धन पर्वत के पास रहते थे।

 छीतस्वामी की चर्चित पंक्ति है-

मेरी अंखियन के भूषन गिरीधारी 
बलि-बलि जाउं छबीली छवि पर अति आनंद सुतकारी

हे विधना । तो सों अंचरा पसारि माँगों ।
जन्म-जन्म दीजो मोहि याही ब्रज बसिबो ।।

 

चतुर्भुजदास का जीवन परिचय

 चतुर्भुजदास का जीवनकाल 1530-1585  में हुआ था । पिता की भाँति ये भी कृषक थे। 

 चतुर्भुजदास का जन्म जमुनावतै (उत्तर प्रदेश) में हुआ था।

 ये कुंभनदास के कनिष्ठ पुत्र और विट्ठलनाथ के शिष्य थे। 

 चतुर्भुजदास की प्रमुख रचनाएँ हैं- 

  1. भक्ति प्रताप 
  2. द्वादश यश 
  3. हितजू को मंगल 
  4. चतुर्भुज कीर्त्तन संग्रह

 रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि चतुर्भुजदास की  भाषा चलती और सुव्यवस्थित है।

 हिंदी साहित्य में चतुर्भुजदास नाम से चार भक्त कवियों का उल्लेख मिलता है।

 

नंददास का जीवन परिचय

 नंददास का जीवनकाल 1533-1583 है।

 नंददास का जन्म रामपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था।

 कहा जाता है कि नंददास तुलसीदास के छोटे भाई थे । प्रारंभ में ये रामभक्त थे नरसिंह पंडित से दीक्षा लिए थे परंतु अयोध्या का रास्ता भूल जाने के कारण गोकुल पहुँच गए और वहीं पर विट्ठलनाथ से दीक्षा लेकर कृष्ण भक्त हो गए।

 नंददास की प्रमुख रचनाएँ निम्नवत हैं-

अनेकार्थ मंजरी, मानमंजरी, सुदामा चरित, रसमंजरी, रुपमंजरी, विरहमंजरी,

⇒ नंददास का विस्तृत जीवन परिचय व रचनाएँ (click here)

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