हिंदी साहित्य के भक्तिकाल की निर्गुण धारा की एक दूसरी उपधारा ‘प्रेमाश्रयी काव्य धारा‘ है, जिसे ‘सूफी काव्य‘ कहते हैं। निर्गुणोपासकों की वह शाखा, जिनकी भक्ति का मुख्य विषय ‘प्रेम’ है और जो ईश्वर से मिलानेवाला है तथा जिसका आभास लौकिक प्रेम के रूप में मिलता है, ‘सूफीशाखा’ अथवा ‘प्रेमाश्रयी शाखा है। sufi kavy, premashreyi kavy
‘सूफी’ शब्द की व्युत्पत्ति जिन विभिन्न शब्दों से की गयी है, वे इस प्रकार हैं
⇒ सफ (पंक्ति)
⇒ ‘सफ्फ (चबूतरा)
⇒ ‘सफ्फा (पवित्र जीवन बिताने वाला साधु)
⇒ सोफिस्त (ज्ञानी)
⇒ सूफा ( अरबों की जाति विशेष)
⇒ ‘सुफ्फाह (भक्त विशेष)
⇒ ‘सूफ (सादा ऊन)
⇒ सोफिया (विद्या)
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सूफी काव्य की विशेषताएँ
1. सूफीकाव्य का मूल भाव ‘प्रेम’ है। ‘लौकिक प्रेम के द्वारा अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति’ सूफी – काव्य की प्रधान विशेषता है।
2. सूफीकाव्य प्रायः मुसलमान कवियों द्वारा हिंदू-घरों में प्रचलित प्रेम-कहानियों के आधार पर लिखे गये हैं।
3. सूफीकाव्य नायिका प्रधान काव्य है। सूफीकाव्य का नामकरण नायिका, वह भी ‘वती प्रत्यय’ के नाम पर हुआ है। जैसे- मृगावती, कनकावती, पद्मावती, सत्यवती इत्यादि
4. प्रेममूलक आख्यान, कथात्मकता, मानव एवं मानवेतर पात्र (यथा- राजकुमार, राजकुमारी, बैताल, हंस इत्यादि) हिंदू-मुस्लिम एकता, घटनाओं में काल्पनिकता एवं अलौकिकता इत्यादि सूफीकाव्य की अन्य मुख्य विशेषताएँ हैं।
5. सूफीकाव्य प्रायः ‘अवधी भाषा‘ में है इसकी शैली ‘दोहा-चौपाई’ कडवकबद्ध है। इस संप्रदाय के सब कवियों ने पूरबी हिंदी अर्थात् अवधी का प्रयोग किया है रामचंद्र शुक्ल
6. सूफी- काव्य के आरंभ में मुहम्मद और परमात्मा की स्तुति, गुरु या पीर का नाम, शाहेवक्त अर्थात् समकालीन बादशाह का उल्लेख, कथानक – रूढ़ि (मृगावती एवं मधुमालती में उड़नेवाली स्त्रियों की कथानक – रूढ़ि का प्रयोग हुआ है) इत्यादि सूफी काव्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
सूफी संप्रदाय
इस्लाम धर्म में शरा (सनातनी) और बेशरा ( मस्तमौला फकीर ) दो कोटियाँ हैं। बेशरा साधक मलामती कहलाते हैं। भारतीय सूफी मुख्यतः बेशरा सम्प्रदाय के हैं इनके प्रमुख उप सम्प्रदाय हैं चिश्ती, कादिरी, सुहरावर्दी, नक्शावंदी और सत्तारी
1. चिश्ती सम्प्रदाय
चिश्ती संप्रदाय की सातवीं पीढ़ी में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती हुए यह सूफीमत का भारत में सबसे प्रमुख संप्रदाय है । इस सम्प्रदाय में कुतुबुद्दीन, काकी तथा फरीदुद्दीन हुए। इस संप्रदाय में संगीत का प्राधान्य था इसका समय 12वीं सदी का उत्तरार्द्ध है।
2. सुहरावर्दी सम्प्रदाय
बहाउद्दीन जकारिया ने भारत में इस संप्रदाय का प्रवर्त्तन किया। इसका समय 13वीं सदी का पूर्वार्द्ध माना जाता है।
3. कादरी सम्प्रदाय
इसके प्रवर्त्तक अब्दुल कादि अल जिलानी सूफी सैयद थे। मुहम्मद गौस इस संप्रदाय के प्रमुख प्रचारक थे। इस संप्रदाय में संगीत की अधिक प्रधानता नहीं। थी। 15वीं सदी का उत्तरार्द्ध इस संप्रदाय का समय माना जाता है।
4. नक्शबंदी सम्प्रदाय
इसका प्रचार ‘अहमउद फारूखी’ ने किया एवं इसके प्रवर्तक ख्वाजा वहाउद्दीन राबिया प्रसिद्ध सूफी महिला साधक हो गयी। इसका समय 16वीं सदी का उत्तरार्द्ध माना जाता है।
सूफी मत का दार्शनिक आधार
सूफी-मत में साधनामय जीवन को सफर मानते हुए साधना की निम्न 4 अवस्थाएँ और 4 मंजिलें मानी गई हैं।
सूफी साधना की 4 मंज़िलें इस प्रकार हैं-
1- शरीअत (धर्मग्रंथों का विधि निषेध)
2- तरीकत (हृदय की शुद्धता)
3- हकीकत ( सत्यबोध)
4- मारिफत (सिद्धावस्था या आत्मा परमात्मा का मिलन)
सूफी साधना की 4 अवस्थाएँ इस प्रकार हैं –
1- नासूत ( भौतिक जगत )
2- मलकूत ( आत्म जगत )
3- लाहूत ( सत्य जगत )
4- जबरुत (आनंदमय जगत )
जायसी ने इन चारों मंजिलों का उल्लेख ‘पद्मावत’ में किया है-चार बसेरों से चढ़े, सत से उतरे पार । साधना की अंतिम मंजिल पर पहुँचने पर साधक की रूह (आत्मा) बंधनग्रस्तता से फना (मुक्त) हो जाती है। सूफी-दर्शन को तसव्वुफ कहा गया है।
इश्क मजाजी (लौकिक प्रेम) से ‘इश्क हकीकी अलौकिक प्रेम तक की सूफी कवियों की प्रेम-पद्धति में मनुष्य के 4 विभागों की चर्चा है। 1. नफ्स (भोगवृत्ति इंद्रिय), 2. रुह (आत्मा या चित्त), 3. कल्ब (हृदय) और 4 अक्ल (बुद्धि)
प्रमुख सूफी रचना और रचनाकार
1. हंसावली (1370 ई.)
मोतीलाल मेनारिया के अनुसार यह प्रथम सूफी काव्य है, जिसके रचनाकार ‘असाइत‘ हैं। गणपतिचंद्र गुप्त की भी मान्यता है कि इस काव्य को हिंदी – प्रेमाख्यान – परंपरा का प्रथम प्रतिनिधि काव्य कहा जा सकता है। राजस्थानी भाषा में रचित कवि असाइयत की इस कृति का रचना स्रोत विक्रम-बैताल की कथा है। पाटण की राजकुमारी ‘हंसावली’ को इसमें कथा का आधार बनाया गया है।
2. चन्दायन ( 1379 ई.)
इससे हिन्दी में सूफी-काव्य (प्रेमाख्यान- काव्य) की – परम्परा का सूत्रपात होता है। इसकी रचना मुल्ला दाऊद ने अलाउद्दीन खिलजी के राज्यकाल में 1379 ई. में की थी। डॉ. रामकुमार वर्मा ने मुल्ला दाऊद को संधिकाल के कवि के अंतर्गत रखा है। इसका मूलनाम माताप्रसाद गुप्त ‘लोरकहा’ या ‘लोरकथा’ मानते हैं जबकि परमेश्वरी लाल गुप्त ने इसका पाठ ‘चंदायन’ के रूप में प्रस्तुत किया है । नायक लोक (लोरिक) तथा नायिका (चन्दा) का प्रेम वर्णन इसका कथ्य है ।
3. लखनसेन पद्मावती कथा (1459 ई.)
दामोदर कवि की इस रचना में राजा लक्ष्मणसेन और राजकुमारी पद्मावती की कथा राजस्थानी भाषा में वर्णित है। कवि ने इसे ‘वीर कथा कहा है परन्तु वास्तव में यह रोमानी – शैली का शुद्ध प्रेमकाव्य है।
4. सत्यवती कथा ( 1501 ई.)
इसके रचयिता ईश्वरदास सगुणोपासक भक्त थे। इसकी कथा राजकुमारी सत्यवती तथा राजकुमार ऋतुपर्ण के प्रथम दर्शनजन्य प्रेम-प्रसंग पर आधारित (दोहा – चौपाई छंद में) है। इसमें सतीत्व एवं पतिव्रता धर्म के माहात्म्य का निरूपण एवं उद्देश्य व्यंजित हुआ है। शुक्ल जी ने इस रचना को भक्तिकाल के किसी धारा में स्थान नहीं दिया है।
5. मृगावती (1501 ई.)
चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य और जौनपुर के बादशाह हुसैन शाह के राजाश्रित कवि कुतुबन ने 1501 ई. में दोहा – चौपाई शैली में ‘मृगावती’ लिखा। इसमें चंद्रनगर के राजा गणपति देव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा मुरारि की कन्या की प्रेमकथा वर्णित है। प्रसिद्ध प्रथम आत्मकथाकार बनारसीदास ने अपनी आत्मकथा ‘अर्द्धकथानक’ में 2 सूफी काव्यों मृगावती और मधुमालती का उल्लेख किया है।
6. माधवानल कामकंदला (1527 ई.)-
इसके रचियता ‘गणपति‘ ने नायक माधव एवं नृत्यविशारदा कामकन्दला के प्रेम का निरूपण रोमांचक शैली में किया है। काव्य के आरम्भ में कवि ने कामदेव की स्तुति की है। इसकी भाषा राजस्थानी है तथा छंद की दृष्टि से इसकी विशिष्टता यह है कि इसमें केवल ‘दोहे’ का प्रयोग किया गया है।
7. पद्मावत (1540 ई.)
जायसी की ‘पद्मावत’ सर्वश्रेष्ठ सूफी – प्रेमाख्यानक काव्य है। इसमें चितौड़ के राजा रत्नसेन तथा सिंहल की राजकुमारी पद्मावती के प्रेम, विवाह एवं विवाहेत्तर जीवन की गाथा वर्णित है कडवकबद्ध पद्धति (दोहा-चौपाई) एवं ठेठ अवधी भाषा में रचित जायसी की ‘पद्मावत’ हिंदी का एक श्रेष्ठ महाकाव्य है। फारसी की मसनबी – शैली में रचित पद्मावत लौकिक प्रणयगाथा के साथ-साथ दार्शनिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना है।
जायसी की ‘चित्ररेखा में भी एक लघु प्रेमकथा वर्णित है।
जायसी की अन्य रचनाओं में अखरावट (वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर सृष्टि की उत्पत्ति से संबंधित रचना),
आखिरी कलाम (कुरान पर आधारित प्रलय से संबद्ध कलाम, सूफी-सिद्धांत की कृति),
कहरनामा (आध्यात्मिक विवाह के साथ कहार जाति से संबंधित, कहारों के लोकगीत कहरवा की लोकधुन पर आधारित),
मसलानामा (ईश्वर भक्ति एवं प्रेम निवेदन) इत्यादि मुख्य हैं।
पद्मावत की कथावस्तु (57 खंड) को आलोचकों ने 2 भागों में बाँटा था रत्नसेन और पद्मावती के विवाह तक पूर्वार्द्ध भाग और शेष उतरार्द्ध भाग । रामचंद्र शुक्ल आदि विद्वानों ने पूर्वार्द्ध को कल्पना – प्रसूत एवं उतरार्द्ध को ऐतिहासिक माना था। डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त ने लिखा है कि “उतरार्द्ध के ऐतिहासिक होने के विपक्ष में अनेक अकाट्य प्रमाण श्री इंद्रचंद्र नारंग और शिव सहाय पाठक ने दिये हैं। स्वयं कवि का कथन है- ‘आदि अंत जासि कथ्था अहै, लिखि भाषा चौपाई कहे। डॉ. हरदेव बाहरी ने ‘प्राकृत साहित्य का इतिहास’ में ‘रत्नशेखर – कथा’ का उल्लेख करते हुए कहा है कि पद्मावत की कथा इससे गहरा साम्य रखती है।
8. मधुमालती (1545 ई.)
मंझन कृत ‘मधुमालती’ में नायक-नायिका के प्रथम दर्शन जन्य प्रेम के साथ-साथ पूर्वजन्म के प्रणय – संस्कारों की महत्ता का वर्णन है । मृगावती के समान इसमें 5 चौपाइयों (अर्द्धालियों) के उपरान्त दोहा का क्रम (कडवक-पद्धति) मिलता है। मधुमालती की तर्ज पर दक्खिनी उर्दू में ‘गुलशाने इश्क’ (1643 ई.) शीर्षक से एक प्रेमाख्यान दक्षिण के शायर नसरती ने लिखी है। चतुर्भुजदास ने भी 1780 ई. में ‘मधुमालती’ शीर्षक से प्रेमाख्यानक काव्य लिखा है।
डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त ने लिखा है कि – “हिन्दी प्रेमाख्यानों में नायक को बहुपत्नीवादी दिखाया गया है पर यह ग्रंथ इसका अपवाद है।” इसप्रकार यह हिंदी का ऐसा प्रथम प्रेमाख्यानक काव्य है, जिसमें बहुपत्नीवाद का सर्वथा अभाव है। मधुमालती में मनोहर (नायक) और मधुमालती (नायिका, महारस नगर की राजकुमारी) की मुख्य कथा के साथ-साथ प्रेमा और ताराचंद की भी प्रेम-कहानी वर्णित है।
9. ढोला-मारू रा दूहा (1473 ई.)
इसके रचयिता कुशल लाभ माने जाते हैं। डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने अंतः साक्ष्यों के आधार पर इसे आदिकाल की रचना न मानकर इसे भक्तिकाल के अंतर्गत रखा है। कुशल लाभ (कल्लोल कवि ) द्वारा पुरानी राजस्थानी भाषा में रचित इस ग्रन्थ में नरवर देश के राजकुमार ढोला 1. (दूल्हा) तथा पूगल देश की राजकुमारी मारवणी के विवाहेत्तर प्रेम और विरह की मार्मिक व्यंजना मिलती है। ढोला मारू में विवाह – पूर्व प्रेम एवं नायिका की प्राप्ति के लिए संघर्ष एवं शौर्य का वर्णन नहीं मिलता, इसलिए इसे शुद्ध प्रेमाख्यान या रोमांस काव्य नहीं माना जाता है। काव्य-शैली की दृष्टि से भी यह परंपरागत प्रेमाख्यानों से भिन्न है। इसमें केवल दोहों का प्रयोग किया गया है।
10. माघवानल कामकन्दला चौपाई (1556 ई.)
इसके रचयिता कुशल लाभ ने नायक-नायिका के अनेक जन्मों की कथा का वर्णन किया है। इसकी भाषा राजस्थानी है।
11. रूपमंजरी (1568 ई.)
अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि नन्ददास द्वारा रचित ‘रूपमंजरी’ में विवाहिता रूपमंजरी और कृष्ण – प्रेम का स्वच्छंद रूप में चित्रण हुआ है। कवि ने इसमें पहली बार उत्पत्ति रस (नारी का परपुरुष से प्रेम ) की स्थापना की है। दोहा – चौपाई – शैली में रचित यह ब्रजभाषा की एक प्रौढ़ एवं मार्मिक रचना है, जिसका उद्देश्य हरि भक्ति का प्रचार करना था ।
12. प्रेमविलास-प्रेमलता की कथा ( 1556 ई.)
इस रचना का प्रारम्भ ‘जैनाय नमः’ से हुआ है एवं इसका रचना – स्थान लाहौर है। इसके रचनाकार जैन श्रावक ‘जटमल‘ हैं। इस प्रेमकाव्य में नायक-नायिका का प्रेम प्रत्यक्ष दर्शन से उत्पन्न होता है और फिर दोनों गुप्तरूप से विवाह कर के भाग जाते हैं।
13. छिताईवार्ता ( 1590 ई.)
‘नारायणदास‘ ने इतिहास और कल्पना के मिश्रण से ‘छिताई देवगिरी’ के राजा रामदेव की कन्या तथा ‘ढोल समुद्रगढ़’ के राजकुमार के प्रणय की गाथा छिताई – वार्ता में प्रस्तुत की है। इसका कथानक पद्मावत से प्रभावित है दोहा – चौपाई की शैली में रचित इसकी भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है।
14. माघवानल-कामकन्दला (1584 ई.)
आलम ने इस प्रेमाख्यान में नायक-नायिका के कई जन्मों की कथा न कहकर केवल एक जन्म की ही कथा का मार्मिक एवं सरस वर्णन किया है।
15. चित्रावली (1613 ई.)
(1) जहाँगीर के समकालीन इसके रचनाकार ‘उसमान’ (इनका उपनाम मान था ) शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्य परंपरा में हाजीबाबा के शिष्य थे, जिन्होंने ‘चित्रावली’ की रचना की । ‘चित्रावली’ के आरम्भ में शाह निजामुद्दीन, हाजीबाबा और जहाँगीर की प्रशंसा है।
(2) इसमें सुजान (नेपाल के राजकुमार) तथा चित्रावली (रूप नगर की राजकुमारी) के प्रेम का वर्णन किया गया है। छंद-योजना कडवक ( 7 अर्द्धालियों पर एक दोहा) है।
16. रसरतन (1618 ई.)
पुहकर कवि ने इसमें राजकुमारी रम्भा तथा सोम के प्रेम का वर्णन किया है।
17. ज्ञानदीप (1619 ई.)
शेखनबी द्वारा रचित ‘ज्ञानदीप’ में राजा ज्ञानदीप एवं रानी देवजानी की कथा है। ज्ञानदीप जहाँगीर के समकालीन थे। शुक्लजी ने लिखा है कि ज्ञानदीप से सूफी कवियों की प्रचुरता एवं प्रेमगाथा की परम्परा समाप्त समझनी चाहिए।
18. हंस जवाहिर (1731 ई.)
बाराबंकी निवासी कासिमशाह ने राजा हंस और रानी – जवाहिर की कथा को लेकर ‘हंस जवाहिर’ सूफीकाव्य लिखा। ये दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के समकालीन थे।
19. इंद्रावती (1744 ई.) अनुराग बांसुरी (1764) –
दिल्ली बादशाह मुहम्मद शाह के समकालीन नूर मुहम्मद ने ‘इन्द्रावती‘ में कालिंजर के राजकुमार राजकुंवर और आगमपुर की राजकुमारी की प्रेमगाथा का वर्णन किया है। शुक्लजी ने ‘इंद्रावती’ को सूफी-पद्धति का अंतिम ग्रंथ माना है।
नूरमुहम्मद ने ‘अनुराग बांसुरी’ की भी रचना की थी। नूर मुहम्मद ने फारसी में ‘रौजतुल हकायक’ नामक एक ग्रंथ लिखा। नूर मुहम्मद फारसी के कवि थे एवं कामयाब नाम से शायरी करते थे।
रामचन्द्र शुक्ल ने अनुराग बांसुरी को कई दृष्टियों से एक विलक्षण रचना माना है। जैसे—भाषा का अन्य सूफी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृत गर्भित होना, हिन्दी-भाषा के प्रति मुसलमानों के किनारापन का भाव, चौपाइयों के बीच दोहे न लिखकर बरवै का प्रयोग, सारी कहानी और सारे पात्रों का रूपक होना इत्यादि। नूर मुहम्मद को हिन्दी भाषा में कविता करने के कारण ‘अनुराग बांसुरी’ में जगह-जगह सबूत देना पड़ा है कि वे इस्लाम के पक्के अनुयायी हैं ।
20. जान कवि के प्रेमाख्यानक काव्य
17वीं सदी के मध्य जान कवि हुए जिन्हें सर्वाधिक प्रेमाख्यानक काव्य लिखने का श्रेय प्राप्त है। उनके 78 काव्यग्रंथों में 29 प्रेमाख्यानक काव्य हैं। इनमें कथा रतनावती, कथा कनकावती, कथा कंवलावती, कथा मोहिनी, कथा नल-दमयन्ती, कथा कलावन्ती, कथा रूपमंजरी, कथा कलंदर, कथा पिजरशां साहिजादै वा देवलदे इत्यादि मुख्य हैं। जान कवि पहले हिन्दी के कवि हैं, जिन्होंने फारसी प्रेमाख्यानक की ओर ध्यान देते हुए फारसी के लैला-मजनूं की तर्ज पर ग्रन्थ ‘लै लै मजनूं’ की रचना की। ये शेख मुहम्मद चिश्ती के शिष्य थे। इनकी भाषा राजस्थानी प्रभावित ब्रजभाषा है।
21. नल-दमयंती कथा
सूफी काव्य मुसलमान कवियों द्वारा ही लिखे गए। केवल एक हिन्दू (पंजाबी) कवि ‘सूरदास’ ने ‘नल-दमयंती कथा लिखी है। नल-दमयंती को लेकर नरपति व्यास ने ‘नल-दमयंती (1625 ई.) और मुकुन्द सिंह ने नलचरित्र (1641 ई.) शीर्षक से प्रेमाख्यानक काव्य लिखा
22. अन्य सूफी काव्य
आलमशाह के समकालीन कवि शेख निसार (वास्तविक नाम गुलाम असरफ) ने युसूफ जुलेखा, ख्वाजा अहमद ने ‘नूरजहाँ, शेख रहीम ने ‘भाषा प्रेमरस‘, कवि नसीर ने ‘प्रेमदर्पण‘ (1917 ई.) शीर्षक से प्रेम काव्य लिखा
23. संतों का प्रेमाख्यानक काव्य
16वीं सदी के संत कवि ‘धरणीदास‘ द्वारा रचित ‘प्रेमपगास‘, 17वीं सदी के संत दुःखहरण दास कृत ‘पुहपावती‘ एवं नंददास की रूपमंजरी प्रेमकथानक काव्य हैं।
एक दृष्टि में प्रमुख सूफी काव्य
रचना | रचनाकाल | रचनाकार |
हंसावली | 1370 | असाइयत |
चंदायन | 1379 | मुल्ला दाउद |
लखनसेन पद्मावती कथा | 1459 | दामोदर |
सत्यवती कथा | 1501 | ईश्वरदास |
मृगावती | 1501 | कुतुबन |
माधवानल कामकंदला | 1527 | गणपति |
पद्मावत | 1540 | जायसी |
मधुमालती | 1545 | मंझन |
चित्रावली | 1613 | उसमान |
रसरतन | 1618 | पुहकर |
कामलता | 1621 | जान |
पुहुपावती | 1669 | दुःखहरणदास |
हंस जवाहिर | 1736 | कासिम शाह |
इन्द्रावती | 1744 | नूर मुहम्मद |
अनुराग बांसुरी | 1764 | नूर मुहम्मद |
माधवानल कामकंदला | 1752 | बोधा |
नल दमयंती चरित्र | 1776 | सेवाराम |
मधुमालती | 1780 | चतुर्भुजदास |
मृगेंद्र | 1855 | प्रेम पयोनिधि |
कथा रतनबावनी, कथा कनकावती, कमलावती | जान कवि | |
युसूफ जुलेखा | शेख निसार | |
नूरजहाँ | 1905 | ख्वाजा अहमद |
प्रेमदर्पण | 1917 | कवि नसीर |
नल दमयंती | 1625 | नरपति व्यास |
नल चरित्र | 1641 | मुकुंद सिंह |
भाषा प्रेमरस | 1915 | शेख रहीम |