भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा के कथन में संत कवियों की अति महत्त्वपूर्ण पंक्तिया या उक्तियां दी गई हैं | इस पोस्ट में भक्तिकालीन जो पंक्तियाँ दी गई हैं वह आगामी परीक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं |
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कबीरदास के कथन
(1) “झिलमिल झगरा झूलत बाकी रही न काहु ।
गोरख अटके कालपुर कौन कहावै साहु ॥”
(2) “बहुत दिवस ते हिंडिया, सुन्नि समाधि लगाइ ।
करहा पडिया गाड़ में दूरि परा पछिताइ || ”
(3) “माधो मैं ऐसा अपराधी तेरी भगति होत नहीं साधी ।
(4) “तंत्र न जानूँ, मंत्र न जानूँ, जानूँ सुन्दर काया ।
(5) “हरि रस पीया जानिए, जे कबहूँ न जाय खुमार ।
मैंमंता घूमत फिरै, नाहीं तन की सार ॥
(6) “दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। रामनाम का मरम है आना।”
(7) “आपुहि देवा आपुहि पाती । आपुहि कुल आपुहि जाती ॥
(8) “तत्त्व मसि इनके उपदेसा। ई उपनीसद कहैं संदेसा॥
(9) “जागबलिक और जनक सवादा। दत्तात्रेय वहै रस स्वादा ॥
(10) “गहना एक कनक ते गहना, न मह भाव न दूजा ।
कहन सुनन कोई दुई करि पापिन, इक मिजाज इक पूजा ॥”
(11) “दिन भर रोजा रहत हैं रात हनत हैं गाय ।
यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुसी खुदाय ॥”
(12) “नैया बिच नदिया डूबति जाय ।
मुझको तू क्या ढूँढ़े बंदे मैं तो तेरे पास में ॥ ”
(13) मसि कागज छुयौ नहीं, कलम गह्यौ नहिं हाथ ।
तुम जिन जानो गीत है, यह निज ब्रह्म- विचार ।
(15) मैं कहता हूँ आखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी
(16) हरि जननी मैं बालक तोरा
(17) “सतगुरु हमसूँ रीझ कर, कह्या एक प्रसंग
बादर बरसा प्रेम का भीजी गया सब अंग ॥ ”
(18) जे तँ बाभन बभनीं जाया ।
तो आन बाट होइ काहे न आया ॥
(19) हरि मोरा पिउ मैं हरि की बहुरिया
(20) हमनं है इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या ?
(21) साई के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय ।
(22) रस गगन गुफा अजर झरै ।
(23) माया महा ठगनी हम जानी।
(24) जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
(25) मोरि चुनरी में परि गयो दाग पिया।
(26) मेरा तेरा मनुआ कैसे एक होई रे।
(27) नैना अंतरि आव तू ज्यूं तो नैन झंपेऊँ
पलकों की चिक डारिकै, पिया को लिया रिझाय।
(28) भीजे चुनरिया प्रेम रस बूँदन।
(29) गुरु मोहि घुंटिया अजर पियाई
(30) दुलहिन गावहु मंगल चारु ।
हमरे घर आये राजा राम भरतार
(31) पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साधि ।
आगे थै सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि ॥
(32) घूँघट के पट खोल बहुरिया ।
(33) सपने में साँई मिले, सोवत लिये जगाय।
(34) संतो आई ज्ञान की आंधी ।
(35) पूजा-सेवा-नेम-ब्रत, गुडियन का-सा खेल।
(36) गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय ।
(37) तरसै बिन बालम मोर जिया।
संत नामदेव के प्रमुख कथन
(1) मन मेरी सुई, तन तेरा धागा।
खेचरजी के चरण पर नामा सिंपी लागा॥
(2) सुफल जन्म मोको गुरु कीना ।
दुःख बिसार सुख अन्तर कीना ॥
ज्ञान दान मोको गुरु दीना। राम नाम बिन जीवन हीना ॥
(3) किस हूँ पूजूँ दूजा नजर न आई
एकै पाथर किज्जे भाव। दूजे पाथर धुरिए पाँव
जो वो देव तो हम बी देव । कहै नामदेव हम हरि की सेव ॥
(4) भगत हेत मारयो हरिना कुस, नृसिंह रूप हवै देह धरयो ।
नामा कहै भगति बस के सव, अजहूँ बलि के द्वार खरो ॥
(5) दसरथनंद राजा रामचन्द्र। प्रणवै नामातत्त्व रस अमृत पीजै ॥
(6) धनि धनि मेधा रोमावली, धनि धनि कृष्ण ओढ़े काँवली
धनि धनि तू माता देवकी, जिह गृह रमैया कँवलापति ॥
(7) माइ न होती, बाप न होते, कर्म्म न होता काया।
हम नहिं होते, तुम नहिं होते, कौन कहाँ ते आया ॥
(8) पाण्डे तुम्हारी गायत्री लोधे का खेत खाती थी
लैकरि ठेंगा टँगरी तोरी लंगत लंगत लाती थी ।
(9) हिन्दू पूजै देहरा, मुसलमान मसीद ।
नामा सेविया जहँ देहरा न मसीद ॥
रैदास के प्रमुख कथन
(1) जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत । फिरहि अजहुँ बानारसी आसपासा ॥
आचार सहित विप्र करहि डंडउति । तिन तिनै रविदास दासानुदास ॥
(2) ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार।
(3) पावर जंगम कीट पतंगा पूरि रह्यो हरिराई ।
(4) गुन निर्गुन कहियत नहि जाके ।
(5) अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी ।
प्रभुजी तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग अंग वास समानी॥
(6) जाति ओछा पाती ओछा, ओछा जनमु हमारा।
(7) दूध त बछरै थनह विडारेउ फुलू भँवर, जलु मीन विगारेउ ॥
(8) अखिल खिलै नहिं, का कह पण्डित, कोई न कहै समुझाई ।
अबरन बरन रूप नहिं जाके कहँ लौ लाइ समाई ॥
(9) चंद सूर नहिं, राति दिवस नहिं, धरनि अकास न भाई ।
करम अकरम नहिं सुभ असुभ नहिं का कहि देहुँ बडाई ॥
(10) जब हम होते तब तू नाहीं, अब तू ही, मैं नाहीं ।
अतल अगम जै लहरि मइ उदधि, जल केवल जलमाहीं ॥
(10) माधव क्या कहिए प्रभु ऐसा, जैसा मानिए होइ न तैसा ।
नरपति एक सिंहासन सोइया, सपने भया भिखारी ॥
(11) अछत राज बिछुरत दुखु पाइया, सो गति भई हमारी ।
(12) मन चंगा तो कठौती में गंगा ।
गुरुनानक के प्रमुख कथन
(1) इस दम दा मैंनूँ कीबे भरोसा, आया न आया न आया।
यह संसार रैन दा सुपना, कही देखा, कहीं नाहिं दिखाया ॥
(2) जो नर दुख में दुख नहि मानै
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै ॥
(3) आवै जाणै आपे देई आखहि सिभि केई कई जिसनौ बखसे सिफति सालाह, नानक पाति साही पातिसाहुँ ।
(4) सुरखान खमसान कीआ हिन्दुस्तान डराइया ।
आपै दोस न देई करता जपु करि मुगल चढाइया ।
एकती मार पई कुर लाणै तै की दरदु न आइया ।
(5) जिन सिर सोहन पटीआ मांगी पाइ संधूर।
ते सिर काती मुनी अहि गल विधि आपै धूड़ ॥
दादूदयाल के कथन
(1) भाई रे ! ऐसा पंथ हमारा ।
है पख रहित पंथ गह पूरा अबरन एक अधारा।
(2) घीव दूध से रमि रह्या व्यापक सब ही ठौर ।
(3) यह मसीत यह देहरा सत गुरु दिया दिखाई।
भीतर सेवा बंदगी बाहिर काहे जाइ ।
(4) असत मिलइ अंतर पडइ, भाव भगति रस जाइ।
साथ मिलइ सुख ऊपजई, आनन्द अंग नवाइ ॥
(5) अपना मस्तक काटिकै वीर हुआ कबीर।
मलूकदास के कथन
(1) अब तो अजपा जपु मनमेरे ।
सुर न असुर टहलुआ जाके मुनि गंध्रव हैं जाके चेरे।
(2) नाम हमारा खाक है, हम खाकी बंदे ।
खाकहि से पैदा किए अति गाफिल गंदे ।
(3) अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
सुंदरदास के कथन
संत सुन्दरदास शृंगार रस के कट्टर विरोधी थे। वे लिखते हैं
(1) रसिक प्रिया रसमंजरी और सिंगारहि जानि।
चतुराई करि बहुत विधि विषै बनाई आनि॥
→ सुन्दरदास ने विभिन्न प्रदेशों की रीति-नीति पर अनेक व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ कही हैं जो निम्न है
(2) आभउछीत अतीत सों होत विलार और कूकर चाटत हांडी – गुजरात पर
(3) बृच्छ न नीरन उत्तम चीर सुदेसन में गत देस है मारू – मारवाड़ पर
(4) गंधत प्याज, विगारत नाज न आवत लाज, करै सब भच्छन – दक्षिण पर
(5) ब्राह्मन क्षत्रिय वे सरु सूदर चोराइ वर्न के मच्छ बधारत – पूरब
(6) है यह अति गम्भीर उठति लहरि आनंद की
मिष्ठ सु याकौ नीर, सकल पदारथ मध्य है।
(7) बोलिए तौ तब जब बोलिबे की बुद्धि होय,
ना तौ मुख मौन गहि चुप होय रहिए।
(8) पति ही सूँ प्रेम होय, पति ही सूँ नेम होय,
पति ही सूँ छेम होय, पति ही सूँ रत है।
(9) ब्रह्म तें पुरुष अरु प्रकृति प्रकट भई,
प्रकृति तें महत्तत्त्व, पुनि अहंकार है।
बाबालाल के कथन
(1) आशा विषय विकार की, बध्या जा संसार ।
लख चौरासी फेर में, भरमत बारंबार ॥
(2) देहा भीतर श्वास है, श्वासे भीतर जीव ।
जीवे भीतर वासना, किस विधि पाइये पीव ॥
रज्जब के कथन
(1) धुनि ग्रभे उत्पन्नो, दादू योगेन्द्रा महामुनि
(2) वेद सुवाणी कूपजल, दुखसूँ प्रापति होय ।
शब्द साखी सरवर सलिल, सुख पीवै सब कोय ॥
(3) संतो, मगन भया मन मेरा ।
अह निसि सदा एक रस लागा, दिया दरीवै डेरा ॥
हरिदास निरंजनी के कथन
गुणग्राही गोविन्द गुण गावा, भजि भजि राम परम पद पावा
जंभनाथ के कथन
गगन हमारा बाजा वाजे, मतर फल हाथी ।
संसै का बल गुरु मुख तोड़ा, पाँच पुरुष मेरे साथी ।
सींगा के कथन
जल विच कमल, कमल विच कलियाँ, जहं वासुदेव अविनाशी।
घर में गंगा में घर में जमुना, नहीं द्वारका काशी ॥
मन रंगीर के कथन
समुझि ले औरे मन आई, अंत न होय कोई अपणा ।
यही माया के फंदे में, नर आन भुलाणा ॥
धर्मदास के कथन
(1) बरनौ मैं साहेब तुम्हरे चरना,
संतन सुखलायक दायक प्रभु दुःख हरना ॥
(2) झरि लागै महलिया गगन घहराय
मितऊ मडैया सुनि करि गैलो ।
संत भीषन के कथन
हरि का नामु अमृत जलु निरमल इहु अउखध जगि सारा ।
गुरु परसादि कहै जनु भीखनु पावउ मोख दुबारा ॥
अक्षर अनन्य के कथन
परलोक लोक दोउ सधै जाय । सोइ राजयोग सिद्धान्त आय ॥
निज राजयोग ज्ञानी करंत। हठि मूढ धर्म साधत अनंत ॥