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काव्य गुण का लक्षण व परिभाषा
काव्य गुण का शाब्दिक अर्थ है विशेषता, शोभाकारी आकर्षक धर्म या दोषों का अभाव ।
आचार्य वामन के अनुसार काव्य गुण के लक्षण व परिभाषा
‘काव्य शोभायायो कर्तारो धर्मा गुणा’
अर्थात काव्य के शोभा विधायक धर्म का नाम गुण है
‘पूर्वे गुणा: नित्या काव्य: शोभानुपत्ते’
वामन कहते हैं कि यदि कोई कविता गुण से रहित है तो वह युवती के यौवन रहित देंह के समान है।
वामन के अनुसार अलंकार की परिभाषा
तदतिशयहेतवस्तेऽलंकारा:
भरतमुनि के अनुसार काव्य गुण की परिभाषा व लक्षण
‘अलंकारैश्चैव गुणश्चैव बहुभि समलंकृता’
अर्थात् अलंकार और गुण का कार्य है कविता को समलंकृत करना।
दंडी के अनुसार काव्य गुण की परिभाषा व लक्षण
‘काव्या शोभाकरान् धर्मान् अलंककरान् प्रचक्षते’
अर्थात काव्य के शोभा विधायक धर्म का नाम अलंकार है।
आचार्य भामह के अनुसार काव्य गुण की परिभाषा व लक्षण
‘समवाय वृत्या शौर्यादय: योगवृत्या तु हारादय: गुणालंकाराणां भेद:’
अर्थात मानव में शौर्य आदि धर्म की भांति अनिवार्य धर्म के रूप में गुण का संबंध है किंतु अलंकार रचना का अनिवार्य तत्व नहीं है । इस लक्षण में भामह ने गुण और अलंकार के पारस्परिक संबंध को स्पष्ट करते हुए दोनों की मूल प्रवृत्तियों को पृथक-पृथक विवेचित किया है।
आनंदवर्धन में रसरूपअंगी के आश्रित रहने वाले धर्म को गुण कहा है आचार्य भारत एवं दंडी ने गुण एवं अलंकार की एक जैसी परिभाषा दी जबकि वामन ने सर्वप्रथम गुण तथा अलंकार के बीच प्रवृत्तिमूलक अंतर स्थापित किया है।
काव्य गुण के भेद
- भरतमुनि ने काव्य गुणों की संख्या 10 माना है।(श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, पद सुकुमारता, अर्थ शक्ति, कान्ति, ओज, उदारता)
- कुन्तक ने काव्य गुणों की संख्या 6 माना है।
1‐सामान्य – सौभाग्य, औचित्य
2-विशिष्ट- माधुर्य, प्रसाद, लावण्य, अभिजात्य। - वामन ने गुणों को दस शब्द गुण और दस अर्थ गुण में विभाजित करके काव्य गुणों की कुल संख्या 20 माना है।
- हेमचंद ने गुणों की संख्या 10 माना है।
- भोज ने गुणों की संख्या 24 माना है।
- विश्वेश्वर पंडित ने गुणों की संख्या 23 माना है।
- अग्नि पुराण में गुणों को छह शब्द गुण, छह अर्थ गुण, छह उभय गुणों में विभाजित करके गुणों की कुल संख्या 18 बताया गया है।
नोट- सर्वमान्य गुणों की कुल संख्या तीन (माधुर्य, ओज, प्रसाद) मानी गयी है।
काव्य गुण संबंधी विशेष तथ्य
*दस गुणों से निसृत तीनों गुणों(माधुर्य, ओज, प्रसाद) के सिद्धांत का प्रतिपादन सर्वप्रथम भामह करते हैं।
*आचार्य शुक्ल गुणों को रसाश्रित मानते हैं जबकि श्यामसुन्दर दास शैली के अन्तर्गत स्वीकार करते हैं।
*आनन्दवर्धन ने गुणों को चित्त की अवस्था से सम्बद्ध किया है। इनके अनुसार तीन गुण क्रमशः माधुर्य, ओज, प्रसाद चित्त की तीन अवस्थाओं से क्रमशः द्रुति, दीप्ति, व्यापकत्व से सम्बद्ध है।
माधुर्य गुण की परिभाषा, लक्षण व उदाहरण
जो सुनने में मधुर लगे अर्थात जहां पर कर्ण कटु वर्ण, कठोर वर्ण, संयुक्त वर्ण व द्वित्व वर्ण को छोड़कर संगीत के समान मधुर ध्वनि का प्रयोग हो जिसमें लम्बे समासों, लम्बे अनुप्रास वाले पदों का प्रयोग न हो वहाँ माधुर्य गुण होता है। इसमें श्रृंगार रस, करूण रस, शांत रस, हास्य रस होता है। इसमें चित्त की द्रुति अवस्था, वैदर्भी रीति, उपनागरिका वृत्ति होती है।
माधुर्य गुण के परिक्षोपयोगी महत्वपूर्ण उदाहरण
1- तासु वचन अति सियही सुहाने दरस लागि लोचन अकुलाने
2- चितवत चकित चहुदिसि सीता कहा, गए किशोर मनरिका
3- सकुचि सनेह बाल मृग नयनी बोले मधुर वचन पित नयनी।
ओज गुण के उदाहरण, लक्षण व परिभाषा
जहाँ पर लम्बे सामासिक पद, आनुप्रासिक पद, कर्णकटु वर्ण, कठोर वर्ण, संयुक्त वर्ण हो वहाँ ओज गुण होता है। इसमें वीर, रौद्र, भयानक व वीभत्स रस होता है। इसमें चित्त की दीप्ति अवस्था, गौणीय रीति, परूषा वृत्ति होती है।
ओज गुण के परिक्षोपयोगी महत्वपूर्ण उदाहरण
1- उधर गरजती सिन्धु लहरियां कुटिल काल के जालो सी।
चलीं आ रही फेन उगलती उगलती फन फैलाए व्यालों सी ।।
2- फहरि ध्वजा भड़की भुजा बलिदान की ज्वालामुखी। निज मातृभूमि के मान में चढ़ मुण्ड की माला उठी।।
3- धरि कुधरि खण्ड प्रचण्ड मर्कट भालू गढ़ पर धावहि।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि प्रचार ही।।
प्रसाद गुण की परिभाषा उदाहरण सहित
जहां पर छोटे सामासिक पद आनुपातिक पद कठोर वर्ण संयुक्त वर्ण कम मात्रा में प्रयुक्त हूं और हृदय को प्रभावित करते हैं रचना अत्यंत स्वच्छ सरल पवित्र ढंग से प्रस्तुत हो उसे प्रसाद गुण कहते हैं इसमें सभी रसों का सार होता है अद्भुत रस भक्ति रस की बहुलता होती है इसमें चित्त की व्यापकत्व अवस्था, पांचाली रीति, कोमला वृत्ति होती है।
माधुर्य गुण के परिक्षोपयोगी महत्वपूर्ण उदाहरण
1- सीता परम रूचिर मृग देखा।
अंग-अंग सुमनोहर भेखा।।
2- मन पछितहिहै अवसर बीते
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