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वक्रोक्ति सम्प्रदाय शब्द का अभिप्राय
वक्रोक्ति संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य कुंतक हैं। काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति वक्र और उक्ति दो पदों के योग से बना है। जिसका अभिप्राय असाधारण कथन, वैशिष्ट्य या भंगिमा है। वक्रोक्ति में किसी भी बात को प्रत्यक्ष रूप से न कहकर अप्रत्यक्ष रूप से कहा जाता है।
वक्रोक्ति की सार्थकता तभी सिद्ध होती है जब श्रोता या पाठक उसके वास्तविक अर्थ को पकड़ लेता है। वक्रोक्ति का भाव सामान्य श्रोता या पाठक नहीं समझ पाते हैं। वक्रोक्ति का प्रयोग विशिष्ट प्रकार के श्रोताओं या पाठकों के लिए किया जाता है।
वक्रोक्ति सम्प्रदाय का उद्भव और विकास
भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास में वक्रोक्ति पद का प्रयोग करने वाले सर्वप्रथम आचार्य भामह हैं परंतु वक्रोक्ति संप्रदाय का प्रवर्तक आचार्य कुंतक को माना जाता है। कुंतक का समय 11वीं सदी है। कुतंक ‘वक्रोक्तिजीवितम्’ पुस्तक लिखकर वक्रोक्ति संप्रदाय की स्थापना की ।
वक्रोक्ति के संबंध में भामह के विचार
‘वाचां वक्रार्थ शब्दोक्ति अलंकाराय कल्पते’ अर्थात् वक्रता या वक्रार्थ या पदोक्ति अलंकार का प्राण तत्व है
वामन के अनुसार वक्रोक्ति
‘सादृश्य लक्षणा वक्रोक्ति’ अर्थात् सम्पूर्ण सादृश्य विधान वक्रोक्ति है।
भोज के अनुसार वक्रोक्ति
‘स्वभावोक्तिश्च वक्रोक्तिश्च रसोक्तिश्च वाड्मय’ अर्थात संपूर्ण वांग्मय स्वभावोक्ति, वक्रोक्ति व रसोक्ति के रूप में विभाजित है।
कुंतक के अनुसार वक्रोक्ति का विवेचन
शब्दार्थौ सहितौ वक्र कवि व्यापार शालिनी
बन्धे व्यवस्थितौ, काव्यं तद्धिलाद कारिणी
अर्थात् कवि के वक्र व्यापार से सुशोभित तथा काव्य मर्मज्ञों को आह्लादित करने वाले, बन्ध में व्यवस्थित शब्द और अर्थ का, मंजुल सरस समन्वय ही काव्य है। शब्दार्थ का सौहित्य वक्रार्थ है और वही काव्य है। आचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति को ‘वैदग्ध्य भंगी भणिति’ कहा जिसमें वैदग्ध्य का अर्थ कवि कर्म की कुशलता और भंगी का अर्थ चमत्कार या चारूता है। इस प्रकार वक्रोक्ति कवि कर्म कौशल से उत्पन्न होने वाले चमत्कार पर आश्रित कथन प्रकार है।
आधुनिक हिंदी आलोचकों द्वारा वक्रोक्ति का विवेचन
🍍आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने काव्य में चमत्कार को महत्व देते हुए लिखा है कि
“शिक्षित कवि की उक्तियों में चमत्कार होना आवश्यक है। यदि कविता में चमत्कार नहीं कोई विलक्षणता ही नहीं तो उससे आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।”
🍍आचार्य रामचंद्र शुक्ल की निश्चित धारणा है कि चमत्कार या उक्ति-वैचित्र्य काव्य का नित्य लक्षण नहीं हो सकता। उनका कहना है कि
“इससे जो लोग मनोरंजन को ही काव्य का लक्ष्य मानते हैं, वे यदि कविता में चमत्कार ही ढूंढा करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।”
🍍शुक्ला जी ने पाश्चात्य काव्यशास्त्री क्रोचे के अभिव्यंजनावाद को कुतंक के वक्रोक्तिवाद का विलायती उत्थान कहा है।
🍍हिंदी के छायावादी युग में वक्रोक्ति के प्रति एक बार पुन: आग्रह दिखाई देता है। डाॅ. नगेन्द्र के अनुसार
“छायावाद का युग वास्तव में वक्रता के वैभव का स्वर्ण युग है। उसके समर्थ कवियों ने व्यवहार में जहाँ वक्रता का अपूर्व उत्कर्ष किया, वहां सिद्धांत में भी उसकी अत्यंत मार्मिक रीति से प्रतिष्ठा की।”
🍍प्रगतिवादी युग में वक्रोक्ति को महत्वहीन समझा गया पर हिन्दी का प्रयोगवादी युग अतिवक्रता से आक्रान्त हो उठा। इसके बाद भारतीय साहित्यशास्त्र में पं0 बलदेव उपाध्याय ने वक्रोक्ति सिद्धांत की पुन: प्रतिष्ठा की। इस प्रकार कुंतक का वक्रोक्ति सिद्धांत किसी न किसी रूप में आज भी प्रतिष्ठित है।
वक्रोक्ति के प्रकार
🥬कुंतक के समकालीन आचार्य भोजराज ने सरस्वती कंठाभरण और श्रृंगार प्रकाश में वक्रोक्ति को व्यापक अर्थों में ग्रहण करते हुए वक्रवचन को ही काव्य कहा और समस्त वांग्मय को तीन भागों में विभाजित किया
1- वक्रोक्ति 2- रसोक्ति 3- स्वभावोक्ति
🥬आचार्य रूद्रट ने वक्रोक्ति को एक शब्दालंकार मात्र स्वीकार करते हुए इसके दो भेदों का उल्लेख किया
1- काकु वक्रोक्ति 2- श्लेष वक्रोक्ति
🥬वक्रोक्ति को अलंकार का मूल मानते हुए आचार्य दंडी ने समस्त वांग्मय को दो भागों में विभाजित किया है।
1- स्वभावोक्ति 2- वक्रोक्ति
🥬कुतंक ने वक्रोक्ति को छह प्रकारों में विभाजित किया है
1- वर्ण विन्यास वक्रता 2- पद पूर्वार्ध वक्रता 3- पद परार्ध वक्रता 4- वाक्य वक्रता 5- प्रकरण वक्रता 6- प्रबंध वक्रता
वक्रोक्ति संप्रदाय से परीक्षोपयोगी महत्वपूर्ण प्रश्न
🍇कुंतक ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा कहा है।
🍇वक्रोक्ति का सर्वप्रथम शास्त्रीय विवेचन करने वाले आचार्य भामह हैं ।
🍇भामह के अनुसार वक्रोक्ति का मूल तत्व शब्द एवं अर्थ की वक्रता या चमत्कार है।
🍇वक्रोक्ति और अतिशयोक्ति को पर्याय मानने वाले आचार्य भामह और दंडी हैं।
🍇वक्रोक्ति सिद्धांत की महत्वपूर्ण उपलब्धि कलावाद की प्रतिष्ठा है।
🍇वक्रोक्ति सिद्धांत की दुर्बलता निम्नलिखित है-
1- काव्य के बाह्य सौन्दर्य या कथन की भंगिमा पर बल देने के कारण इसमें आत्मतत्व का अभाव है।
2- रस को वक्रोक्ति का अंग मानकर उसका महत्व कम कर देना।
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