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सगुण धारा रामभक्ति शाखा / sagun dhara rambhakti shakha
⇒ आलवार भक्तों में शठकोप को रामभक्ति का प्रथम कवि माना जाता हैं। इनकी पुस्तक ‘सहस्रगीत’ में राम की उपासना का उल्लेख है ।
⇒ राम का पहला उल्लेख अपभ्रंश साहित्य में स्वयंभू ने किया है।
⇒ सातवें आलवार कुलशेखर भी राम के अनन्य भक्त थे ।
⇒ ‘श्री सम्प्रदाय’ के आदि आचार्य रंगनाथ मुनि को रामभक्ति परम्परा का प्रथम आचार्य माना जाता है ।
⇒ श्री सम्प्रदाय’ में विष्णु और लक्ष्मी की उपासना मान्य है ।
रामानुजाचार्य
⇒ रामानुजाचार्य ने ‘अद्वैत वेदान्त’ का खण्डन कर ‘विशिष्टाद्वैतवाद’ की स्थापना की जिसके अनुसार ब्रह्म के ही अंश जगत के सारे प्राणी हैं। आलवार शठकोप के पाँच पीढ़ी के पीछे रामानुजाचार्य हुए। रामानुजाचार्य को शेष या लक्ष्मण का अवतार माना जाता है।
⇒ ‘श्री सम्प्रदाय’ की प्रधान गद्दी तोताद्रि में स्थापित है । अनंतानंदजी के शिय कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने गलता (अजमेर राज्य, राजपुताना) में रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। यही पहली और सबसे प्रधान गद्दी हुई। रामानुज संप्रदाय के लिये दक्षिण में जो महत्व तोताद्वि का था वही महत्व रामानंदी संप्रदाय के लिये उत्तर भारत में गलता को प्राप्त हुआ। यह उत्तर तोताद्रि’ कहलाया। कृष्णदास पयहारी राजपूताने की ओर के दाहिमा (दाधी व्य) ब्राह्मण थे।
रामानंद
⇒ रामानुजाचार्य की 14वीं या 15वीं शिष्य – परम्परा में सुप्रसिद्ध स्वामी रामानन्द हुए। हिन्दी में रामकाव्य के पुरस्कर्ता रामानन्द माने जाते हैं।
⇒ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- ” मध्य युग की समग्र स्वाधीन चिन्ता के गुरु रामानन्द ही थे।”
⇒ रामानन्द का जन्म प्रयाग के कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ और मृत्यु काशी में हुई।
⇒ रामानंद पहले भक्त हैं जिन्होंने अपने उपदेशों का माध्यम हिंदी बनाया है।
⇒ रामानुज संप्रदाय में दीक्षा केवल द्विजातियों को दी जाती थी, पर स्वामी रामानंद ने रामभक्ति के द्वार सब जातियों के लिये खोल दिया और एक उत्साही विरक्त दल का संघटन किया जो आज भी ‘वैरागी’ के नाम से प्रसिद्ध है। अयोध्या, चित्रकूट आदि आज भी वैरागियों के मुख्य स्थान है।
⇒ रामानन्द ने कबीर को वाराणसी के पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर राम नाम का ज्ञान दिया। रामानन्द ने कबीर से कहा की गुरु ज्ञान दीपक लेकर कंदरा में बैठे हैं चतुर्दिक उजाला हो रहा है।
⇒ अनंतानंद के शिष्य कृष्णदास पैहारी ने रामानन्द संप्रदाय की पहली और प्रधान गद्दी गलता (अजमेर) में स्थापित की। रामानन्द ने राम की उपासना दास्य भाव से की है।
⇒ गलता में पहले नाथपंथी योगियों का अधिकार था।
⇒ रामानन्द पहले ऐसे भक्त हैं जिन्होंने गृहस्थ जीवन में रहकर भी सन्यास पर बल दिया। शुक्ल जी ने रामानन्द के दो ग्रंथों का उल्लेख किया है। 1- योगचिंतामणि 2- राम रक्षास्तोत्र
⇒ रामानन्द के गुरु का नाम राघवानंद था।
⇒ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रामानन्द को आकाश धर्मा गुरु कहा है।
⇒ राघवानन्द ने उत्तर भारत में रामभक्ति का प्रवर्तन किया परन्तु इसे प्रतिष्ठित और प्रसारित रामानन्द ने किया।
⇒ रामानन्द 14वीं शती में वर्तमान थे।
रामानंद की रचनाएँ
(1) वैष्णवमताब्ज भास्कर,
(2) श्री रामार्चन पद्धति,
(3) योगचिंतामणि,
(4) रामरक्षास्तोत्र,
(5) आनन्दभाष्य आदि ।
⇒ ‘श्री रामार्चन पद्धति’ में रामानन्द ने अपनी पुरी गुरु परंपरा दी है।
⇒ रामानन्द रचित प्रमुख काव्य पंक्ति निम्नांकित है-
(1) आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की।
जाके बल भर ते महि काँपै। रोग सोग जाकी सिमा न चांपै ॥
(2) कहाँ जाइए हो धरि लागो रंग । मेरो चंचल मन भयो अपंग ॥
रामानन्द ने ‘रामावत सम्प्रदाय’ की स्थापना की। इस सम्प्रदाय के लोग ‘वैरागी’ नाम से प्रसिद्ध हुए
⇒ रामानन्द कृत ‘वैष्णवमताब्जभास्कर’ में उनके शिष्य सुरसुरानंद ने नौ प्रश्न किए हैं जिनके उत्तर में रामतारक मंत्र की विस्तृत व्याख्या, अहिंसा का महत्व इत्यादि विषय है।
⇒ राघवानंद के शिष्य रामानंद, रामानंद के शिष्य अनंतानंद, अनंतानंद के शिष्य कृष्णदास पयहारी, कृष्णदास पयहारी के दो शिष्य अग्रदास, कील्हदास और अग्रदास के शिष्य नाभादास थे।
⇒ कील्हदास ने रामभक्ति में योगाभ्यास का मेल कर एक तापसी शाखा की स्थापना की। कील्हदास के शिष्य द्वारकादास थे। इनके संबंध में नाभादास ने भक्तमाल में लिखा है- ‘अष्टांग जोग तन त्यागियो द्वारकादास, जानै दुनी’
अग्रदास
⇒ अग्रदास ने अपनी गद्दी जयपुर के पास रैवास में स्थापित किया। अग्रदास ने रसिक संप्रदाय की स्थापना की ये अग्रअली नाम से स्वयं को जानकी जी की सखी मानकर काव्य रचना करते थे। अग्रदास की रचनाएं निम्नलिखित हैं
1- रामाष्टयाम
2- राम ध्यान मंजरी
3- उपखाण बावनी
4- उपासना बावनी
5- राम भजन मंजरी
6- हितोपदेश
ईश्वरदास
⇒ ईश्वर दास का जन्म 1480 ई. में हुआ था। ईश्वरदास नानक के समकालीन थे। ईश्वरदास की रचना राम वनवास प्रसंग और अंगदपैज है इन्होंने राम वनवास प्रसंग में भरत मिलाप की कथा प्रस्तुत की है|
विष्णुदास की रचनाएँ
1- महाभारत कथा
2- रुक्मिणी मंत्र
3- स्वर्गारोहण
4- रामायण कथा
नाभादास
⇒ नाभादास गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन रामभक्त कवि थे।
⇒ नाभादास का जन्म अनुमानत: 1570 ई. के आसपास हुआ था।
⇒ नाभादास ने हिंदी में भक्तमाल की परंपरा का सूत्रपात किया।
⇒ नाभादास के गुरु का नाम अग्रदास था। डॉक्टर ग्रियर्सन ने नाभादास का उपनाम नारायणदास बताया है।
⇒ नाभादास ने 1585 ई. के आसपास ब्रजभाषा में भक्तमाल की रचना की।
⇒ भक्तमाल में 200 कवियों का जीवन वृत्त और उनकी भक्ति की महिमा सूचक बातों को 316 छप्पयों में लिखा गया है।
⇒ सन 1712 ई. में प्रियादास ने भक्तमाल कि टीका ‘रसबोधनी’ शीर्षक से ब्रजभाषा के कवित्त सवैया शैली में लिखि।
⇒ नाभादास ने रामचरित से संबंधित दो अष्टयामों की रचना की, जो संस्कृत के चंपू काव्य शैली में रचित हैं। प्रथम अष्टयाम की भाषा ब्रजभाषा है। इसमें गद्य में राम और सीता के आठों पहरों का वर्णन है। द्वितीय अष्टयाम की भाषा अवधी है। इसमें दोहा चौपाई शैली में राम सीता का वर्णन है।
⇒ नाभादास द्वारा विभिन्न कवियों के संदर्भ में भक्तमाल में कही गई महत्वपूर्ण पंक्तियां निम्नलिखित है-
⇒ कबीरदास के संबंध में नाभादास के कथन या पंक्ति
‘कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट्दरसनी।’
⇒ कबीरदास के संबंध में नाभादास के कथन
निरअंकुश अति निडर, रसिक जस रसना गायो
⇒ तुलसीदास के संबंध में नाभादास के कथन
त्रेता काव्य निबन्ध करी सत कोटि रसायन ।
इक अक्षर उच्चरै ब्रह्महत्यादि परायन ।
अब भक्तन सुख दैन बहुरि लीला विस्तारी।
रामचरन रस मत्त रहत अहनिसि व्रतधारी ॥
संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लियो ।
कलि कुटिल जीव निस्तारहित वाल्मीकि तुलसी भयो।
⇒ सूरदास के बारे में नाभादास के कथन
उक्ति, चोज, अनुप्रास, वरन, अस्थिति अति भारी।
वचन, प्रीति निर्वाह, अर्थ अद्भुत तुकधारी।
विमल बुद्धि गुन और को, जो वह गुन स्वननि धेरै ।
‘सूर’ कवित सुनि कौन कवि जो नहि सिर चालन करै॥
⇒ नंददास के बारे मे नाभादास के कथन
लीला-पद-रस-रीति-ग्रन्थ-रचना में नागर ।
सरस- उक्ति-युत-युक्ति, भक्ति-रह-गान उजागर
चंद्रहास-अग्रज-सुहृद, परम प्रेम-पथ में पगे।
नन्ददास आनन्दनिधि, रसिक सुप्रभु-हित-रंगमगे ॥
⇒ अष्टयाम में नाभादास ने लिखा है-
‘अवधपुरी की शोभा जैसी । कहि नहि सकहि शेष श्रुति तैसी॥’
सेनापति
⇒ सेनापति का जन्म सन् 1589 ई० के आसपास माना जाता है। इनके गुरु का नाम ‘हीरामणि दीक्षित’ था।
⇒ सेनापति द्वारा रचित दो ग्रन्थ है-
(1) कवित्त रत्नाकर- इसमें पाँच तरंग और 394 छंद में राम कथा का वर्णन है।
(2) काव्य कल्पद्रुम- इसे एक रीति ग्रन्थ माना जाता है।
⇒ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सेनापति के सन्दर्भ में लिखा है-‘ये बड़े ही सहृदय कवि थे। ऋतु वर्णन तो इनके जैसा और किसी श्रृंगारी कवि ने नहीं किया।”
⇒ सेनापति ब्रजभाषा के कवि हैं और इनका सर्वाधिक प्रिय अलंकार ‘श्लेष’ है।
⇒ सेनापति की प्रमुख काव्य पंक्ति
(1) दूरि जदुराई, सेनापति सुखदाई देखौ,
आई रितु पाउस, न पाई प्रेम पतियाँ ॥
(2) सेनापति उनए नये जलद सावन के
चारिहू दिसान घुमरत भरे तोयकै ॥
(3) वृष को तरनि तेज सहसौ करनि तपै,
ज्वालनि के जाल विकराल बरसत है।
(4) सेनापति सोई, सीतापति के प्रसाद जाकी,
सब कवि कान दें सुनत कविताई है।
राम भक्तों की अन्य रचनाए
⇒ प्राणचंद चौहान की रचना रामायण महानाटक(1610)
⇒ माधवदास चरण की रचना रामरासो(1618), अध्यात्म रामायण(1624)
⇒ हृदय राम की रचना हनुमन्नाटक(1623)
⇒ रायमल्ल पांडे की रचना हनुमच्चरित
⇒ नरहरी बारहट की रचना पौरुषेय रामायण
⇒ लालदास की रचना अवध विलास
⇒ कपूर चंद्र त्रिखा की रचना रामायण
⇒ ‘रामायण महानाटक’ एक संवादात्मक प्रबन्ध काव्य है जिसमें दोहा-चौपाई की प्रधानता है।
⇒ हृदयराम कृत ‘हनुमन्नाटक‘ पर संस्कृत के ‘हनुमन्नाटक’ का सर्वाधिक प्रभाव है। इसका एक नाम ‘रामगीत’ भी है।
⇒ ‘पौरुषेय रामायण‘ नरहरिकृत ‘चतुर्विंशति अवतार चरित्र’ नामक विशाल ग्रन्थ का एक अंश है।
⇒ कपूरचन्द्र त्रिखा कृत ‘रामायण‘ गुरुमुखी लिपि में लिखी 145 छंदों की ब्रजभाषा की कृति है ।