रासो साहित्य

रासो साहित्य

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने प्रकरण तीन में वीरगाथा काल और रासो साहित्य का चित्रण किया है। इस समय जैन साहित्य में रास एक छंद की शैली थी। जिसे राजस्थान के राजाओं ने एवं राज्याश्रित कवियों ने वीरतापूर्ण गान के लिए लिखने का एक ढंग बना लिया। जिसे रासो साहित्य कहा गया। रासो साहित्य की उत्पत्ति पर विद्वानों का भिन्न-भिन्न मत है।

रासो शब्द की उत्पत्ति

हिंदी साहित्य के आदिकाल के अंर्तगत आने वाले रासो साहित्य के रासो शब्द की उत्तपत्ति को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है।

➡️ कविराज श्यामलदास और काशीप्रसाद जयसवाल रासो की उत्पत्ति ‘रहस्य’ से मानते हैं।
➡️ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रासो की उत्तपत्ति ‘रसायाण’ से माना है।
➡️ नंददुलारे वाजपेयी ने ‘रास’ शब्द से रासो की उत्पत्ति मानी है।
➡️ विश्वनाथ प्रसाद और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘रासक’ शब्द से रासो की उत्पत्ति मानी है।
➡️ गार्सा-द-तासी ने ‘राजसूय’ से रासो की उत्पत्ति मानी है।
➡️ हर प्रसाद शास्त्री ने ‘राजयस’ से रासो की उत्पत्ति मानी है।
➡️ नरोत्तम स्वामी ने ‘रसिक’ से रासो की उत्पत्ति मानी है।

खुमाण रासो

9वीं सदी में दलपति विजय ने खुमाण रासो की रचना की है। इसमें 500 छंदों का प्रयोग किया गया है। इसमें राजाओं के युद्धों और विवाह का वर्णन है।

बिसलदेव रासो

12वीं सदी में नरपति नाल्ह ने बिसलदेव रासो की रचना की। यह एक गेय काव्य है। इसमें भोज परमार की पुत्री राजमती और अजमेर के चौहान राजा बिसलदेव के विवाह वियोग पुनर्मिलन की कथा है।
बिसलदेव रासो में कुल चार खंड है। प्रथम खंड में राजमती एवं बिसलदेव का विवाह है। दूसरे खंड में बिसलदेव का उड़ीसा की ओर रणयात्रा है।तीसरे खंड में राजमती का वियोग वर्णन है। जिसमें पहली बार बारहमासा का प्रयोग किया गया है। चौथे खंड में भोज का अपनी पुत्री राजमती को वापस ले जाने का वर्णन है। इसमें लगभग दो हज़ार छंद है। यह एक प्रबंध काव्य है।
♐️ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने वीरकाव्य परंपरा का प्रथम ग्रंथ ‘बिसलदेव रासो’ को स्वीकार किया है।

 परमार रासो

12वीं सदी में जगनिक ने परमार रासो की रचना की है। यह एक वीररस प्रधान काव्य है। इसमें महोबा के राजा परमार देव का वर्णन है। यह एक लोक गेय के नाम से चर्चित आल्हखंड है। इसमें बन्दूक और पिस्तौल जैसे तुर्की भाषा के शब्द मिलते हैं।

♐️ आल्हखंड को प्रकाश में लाने का श्रेय फ़र्रुख़ाबाद के कमिश्नर चार्ल्स इलियट को है। 1835 में इलियट ने चारण भाटों की सहायता से इसे लेख बद्ध करवाया।
♐️ आल्हखंड बरसात ऋतु में उत्तर प्रदेश के बैसवाड़ा, पूर्वांचल और बुंदेलखंड क्षेत्र में गाया जाता है।

हम्मीर रासो

14वीं सदी में शारंगधर ने हम्मीर रासो की रचना की है। इसमें राजा रणथमबौर जिनका नाम हमीर था। इनके गौरव का ज्ञान है। इसमें अलाउद्दीन खिलजी और रणथमबौर के राजा हमीरदेव बीच हुए युद्धों का वर्णन है

विजयपाल रासो

14वीं सदी में नाल्ह सिंह ने विजयपाल रासो की रचना की है। इसमें करेली के नरेश विजयपाल के युद्धों का ओजपूर्ण ढंग से वर्णन किया गया है।

पृथ्वीराज रासो

12वीं सदी में पृथ्वीराज रासो के लेखक चंद्रवरदायी हैं। पृथ्वीराज रासो में कुल चार संस्करण है।


1- बृहद संस्करण
2- मध्यम संस्करण
3- लघु संस्करण
4- लघुतम संस्करण


काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने बृहद संस्करण को प्रकाशित किया है। जो 2500 पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ था। इसमें 69 समय (सर्ग) है । चंद्रवरदायी जगति गोत्र का भट्ट ब्राह्मण था।
चंदवरदायी लाहौर में पैदा हुआ। जालंधरी देवी इसकी इष्ट देवी थी। इसके पुत्र का नाम जल्हण था।

चंदवरदायी को षट्भाषा (संस्कृत, प्राकृत, अवहट्ट , पैशाची, शौरसेनी, मागधी) का ज्ञान था तथा उसने स्वयं को पुराणों का ज्ञाता होने का दावा किया।

1875 ई. में डॉ. वुलर महोदय कश्मीर की यात्रा पर गए जहाँ उन्हें जयानक भट्ट की पुस्तक “पृथ्वीराज विजय” मिली डॉ. वुलर ने यह पुस्तक मुरारिदिन एवं श्यामलदास को दी और यहीं से रासो की प्रमाणिकता पर संदेह होने लगा।


पृथ्वीराज रासो की प्रमाणिकता को लेकर विद्वानों के चार वर्ग बने।

1- पृथ्वीराज को अप्रमाणिक मानने वाले विद्वान- कविराज मुरारिदिन, श्यामलदास, गौरीशंकर, हीराचंद ओझा, वुलर महोदय, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामकुमार वर्मा।

2- पृथ्वीराज को अर्धप्रमाणिक मानने वाले विद्वान- सुनीतिकुमार चटर्जी, मुनिजिनविजय, अगरचंदनाहटा, कविराज मोहन सिंह, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, दशरथ सिंह।

3- पृथ्वीराज को प्रमाणिक मानने वाले विद्वान- श्यामसुन्दर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पाण्डया, मिश्रबंधु, मोतीलाल मेनारिया और मथुरा प्रसाद दीक्षित ।

4- पृथ्वीराज पूर्णत: अप्रमाणिक मानने वाले विद्वान- नरोत्तम स्वामी पृथ्वीराज रासो को पूर्णत: अप्रमाणिक मानते हैं।

चंदवरदायी के संबंध में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत या कथन या उक्ति

➡️ जॉन बीम्स ने चंदवरदायी को हिंदी भाषा का प्रथम कवि कहा है।
➡️ एफ. एस. ग्राउज ने चंदवरदायी को हिंदी काव्य का जनक कहा है।
➡️ अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने चंदवरदायी को हिंदी संसार का चांसर कहा है।
➡️ रामकुमार वर्मा ने चंदवरदायी को वीर काव्य धारा का प्रथम कवि कहा है।
➡️ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने चंदवरदायी को हिंदी का प्रथम कवि माना है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा माने गए पृथ्वीराज रासो के प्रमाणिक सर्ग

हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने पृथ्वीराज रासो के जिन सर्गों को प्रमाणित माना है वे निम्नवत हैं-

प्रारम्भिक सर्ग (समय), इच्छिनी का विवाह, शशिव्रता का गंधर्व विवाह, तोमर पहार का सहाबुद्दीन को पकड़ना, संयोगिता का विवाह, कैमास वध, गोरिवध सम्बंधित वृत्तांत, पद्मावति समय 

पृथ्वीराज रासो के संबंध में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत-

➡️ हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने पृथ्वीराज रासो को शुक-शुकी संवाद माना है।
➡️ डॉ. बच्चन सिंह ने पृथ्वीराज रासो को राजनीतिक त्रासदी कहा है।
➡️ मिश्रबंधु ने कहा कि हिंदी का वास्तविक प्रथम महाकवि चंदवरदायी को ही कहा जा सकता है।

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