भक्तिकाल की विशेषता में भक्ति के प्रति भक्त कवियों के मनोभावों को जाना जाता है। भक्तिकाल की विशेषता में भक्तिकाल की प्रवृत्तियाँ भी सम्मिलित है| भक्तिकाल की विशेषता के महत्त्वपूर्ण बिंदु निम्नवत हैं । ईश्वर के प्रति उत्कृष्ट प्रेम, समानता का भाव, गुरु की महिमा एवं नाम स्मरण, शास्त्र ज्ञान की अनावश्यकता, अहंकार का त्याग और लोक जीवन जुड़ाव, नारी संबंधी विचार, भाषा-शैली
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ईश्वर के प्रति उत्कृष्ट प्रेम
भक्तिकालीन कवि की ईश्वर के प्रति उत्कृष्ट आस्था है। इस काल के कवि अपनी रचना का संपूर्ण आधार ईश्वर को ही मनते हैं।भक्तिकाल के कवि दरबारी संस्कृति का घोर विरोध करते हैं। ईश्वर के प्रति अति लगाव को कवियों की पंक्तियों में देखा जा सकता है।
‘भक्तन को कहा सिकरी सो काम’ (कुंभनदास)
“हम चाकर रघुवीर के कहाँ लिखो दरबार
तुलसी अब क्या होंगे उनके मनसबदार” (तुलसीदास)
‘तीर्थ व्रत न अनदेसा, तुम्हरे चरण कमल भरोसा’ (रैदास)
‘तुम्हारी मैं तो प्रेम दिवानी, म्हारो दर्द न जाने कोई’ (मीराबाई)
“एक भरोसे एक बल, एक आस विश्वास
एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास” (तुलसीदास)
समानता का भाव
सामंतवादी दृष्टिकोण में भेदभाव सर्वोपरि था। क्योंकि भेदभाव से उनका अस्तित्व था। जबकि भक्ति मार्ग में सांसारिक भेदभाव को महत्त्व नहीं दिया जाता है। कबीर ने भक्ति आंदोलन का मूल मंत्र दिया है।
‘जाति पाँति पुछै नहीं कोई हारी का भजै सो हरि का होई’ (कबीरदास)
‘तू वामन मैं काशी का जुलाहा, पूछो मोर ज्ञाना’ (कबीरदास)
‘साईं के सब जीव हैं कीर कुंजर दोय’ (कबीरदास)
‘साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय’ (कबीरदास)
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।’ (कबीरदास)
गुरु की महिमा एवं नाम स्मरण
वैदिक काल से ही गुरु महिमा की परंपरा चली आ रही है। बौद्ध, सिद्ध, जैन, नाथों में गुरु की परंपरा रही है। सभी साधकों ने गुरु महिमाकी सत्ता को स्वीकार किया है।
‘बिनु गुरु होय न ज्ञान’ (ज्ञानेश्वर)
‘गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लाँगू पाँय’ (कबीर)
‘कबीर सुमिरन सार है और सफल जन जाल’ (कबीर)
‘गुरु सुवा जेही पंथ दिखावा’ (जायसी)
‘राम से बड़ा राम का नाम,
उल्टा नाम जपत जग जाना,
वाल्मीकि भय ब्रह्म समाना|’ (तुलसीदास)
शास्त्र ज्ञान की अनावश्यकता
सामंती व्यवस्था का एक पंडित और उसका पांडित्य है। जबकि जनसंख्या का अधिकांश भाग निरक्षर था। भक्त कवियों ने भक्ति मेंशास्त्रज्ञान और पांडित्य रोड़ा ही अटकाते हैं। इसलिए भक्त कवियों ने शास्त्रज्ञान और पांडित्य की आवश्यकता को इनकार किया ।
‘पोथी पढ़ी–पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय ।’(कबीरदास)
“मूक होय वाचाल पंगु, चढ़ी गिरवर गहन।
‘आयो घोष बड़ौ व्यापारी
लाद खेप गुन ज्ञान जोग की ब्रज में आनी उतारी|’(तुलसीदास)
अहंकार का त्याग व लोक जीवन से जुड़ाव
भक्तिकाल के कवियों ने अहंकार को त्याग करके लोक जीवन से जुड़ने की ओर अग्रसर हुए हैं।
‘कूता राम का मोतिया मेरा नाऊ’(कबीरदास)
राम सो बड़ौ कौन है, मोसो कौन छोटो (तुलसीदास)
“कहा करो वैकुंठहि जाय
जह नहि नंद, जहाँ न जशोदा
नहिं जह गोकुल ग्वाल न गाय”(परमानंददास)
‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम
दास मलूका काहि गए सबके दाता राम’ (मलूकदास)
नारी संबंधी विचार
भक्तिकाल की विशेषता में कवि सामंती सोच से उपर उठे और नारी के दो रूपों की प्रशंसा की है । पहला रूप सती का और दूसरा रूपचरित्रवान नारी का ।
नारी नसावै तीनि सुख, जा नर पासै होई।
भागति मुकति निज ज्ञान मैं, पैसि न सकई निज कोई (तुलसीदास)
‘नारी की झाई परत, अंधा होत भुजंग।
कबीरा तिनकी कौन गति नित नारी के संग’(कबीर)
भाषा शैली
भक्त कवियों ने प्रचलित लोकभाषा का प्रयोग किया है । कबीर ने सधुककड़ी भाषा, सूरदास ने ब्रज, तुलसी ने अवधी व ब्रज जायसी ने ठेठअवधी का प्रयोग किया है।
का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए सांच
काम जु आवै कामरी का लै करिअ कुमाच (तुलसीदास)
‘आदि अंत जस कथा अहै, लिखी भाखा चौड़यी कहै’(जायसी)