काव्य हेतु में हेतु का शाब्दिक अर्थ है काव्य के सहायक तत्व अर्थात जिन तत्वों के द्वारा काव्य का निर्माण होता है उन्हें काव्य हेतु कहते हैं ।
कवि की काव्य रचना में सहायक तत्व को काव्य हेतु कहते हैं। काव्य की रचना के कौनसे हेतु कारण या उपादान है इस विषय पर काव्यशास्त्र के आचार्यों ने वैस्तृत विचार किया है। काव्यशास्त्र के इतिहास के प्रारंभ से ही आचार्य इस विषय पर विचार करते रहे हैं।
काव्य हेतु के विवेचन में राजशेखर की मौलिक उदभावना शक्ति और प्रतिभा में भेद करना है| राजशेखर के अनुसार शक्ति व्यापक है जबकि प्रतिभा परिमित|
काव्य हेतु के बदले ‘काव्यांग’ शब्द का प्रयोग करते हुए वामन ने लोक विद्या और प्रकीर्ण को काव्य हेतु स्वीकार किया है।
वामन के अनुसार काव्य हेतु की परिभाषा
‘लोको विद्याप्रकीर्णस्य काव्यांगानि’
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काव्य हेतु के प्रकार
राजशेखर में अपनी रचना ‘काव्यमीमांसा’ में चार काव्य हेतु की चर्चा की है। 1- प्रतिभा 2- व्युत्पत्ति 3- अभ्यास 4- समाधि।
इसमें प्रथम तीन काव्य निर्माण के सहायक तत्व हैं और समाधि काव्य प्रयोजन के अंतर्गत आ जाता है
इस प्रकार सर्वमान्य 3 काव्य हेतु (प्रतिभा, व्युत्पत्ति, अभ्यास) ही स्वीकार किए गए हैं।
प्रतिभा काव्य हेतु
यह काव्य की अनिवार्य शक्ति है। प्रतिभा को जन्मजात दैवीय शक्ति, संस्कार रूप माना गया है। प्रतिभा काव्य हेतु के बिना काव्य सृजन संभव नहीं है।
मम्मट ने प्रतिभा को शक्ति कहा है
“शक्तिर्निपुणतालोकशास्त्र काव्याद्धवेक्षणात्।
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।।”
अर्थात् शक्ति लोकशास्त्र काव्य आदि के अनुशिलन और ज्ञान से उत्पन्न योग्यता एवं शिक्षा द्वारा प्राप्त अभ्यास ये काव्य के हेतु हैं।
प्रतिभा को काव्य निर्माण का एकमात्र हेतु मानने के कारण पंडितराज जगन्नाथ को प्रतिभावादी कहा जाता है|
प्रतिभा को ‘नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा’ भट्टतौत ने कहा।
प्रतिभा को ‘अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमा प्रज्ञा’ अभिनवगुप्त ने कहा है।
प्रतिभा के दो भेद (सहजा, उत्पाद्या) रूद्रट ने किया है।
राजशेखर ने अपने ग्रंथ काव्यमीमांसा में काव्य हेतु का विस्तृत विश्लेषण किया है और प्रतिभा के दो भेद किए हैं। करयित्री प्रतिभा, भावयित्री प्रतिभा। करयित्री प्रतिभा काव्य की सर्जना करती है और भावयित्री प्रतिभा उसका रसास्वादन करती है।
पुनः राजशेखर ने कवयित्री प्रतिभा के तीन भेद किए। 1- सहजा 2- आहार्य 3- औपदेशिकी।
मानव में जन्मजात प्रतिभा सहजा होती है जबकि अर्जित प्रतिभा आहार्या होती है और शास्त्र आदि के उपदेश से प्राप्त होने वाली प्रतिभा औपदेशिकी के अंतर्गत आती है।
व्युत्पत्ति काव्य हेतु
व्युत्पत्ति का तात्पर्य मानव के अन्दर समाहित गुण है। राजशेखर व्युत्पत्ति को बहुज्ञता कहते हैं। मम्मट व्युत्पत्ति को निपुणता कहते है। वामन व्युत्पत्ति को विद्या परिज्ञान कहते हैं। विद्या परिज्ञान का तात्पर्य लोक में स्थित उचित अनुचित का ज्ञान रखने से है।
अभ्यास काव्य हेतु
काव्य में प्रतिभा और व्युत्पत्ति के अनुसार उनका निरंतर अनुशीलन अभ्यास कहलाता है। काव्यशास्त्र के सिद्धांतों को अनुशीलन व अभ्यास काव्य रचना को अधिकाधिक दोषमुक्त और स्वच्छ बनाने में सहायक होता है।
इन तीनों हेतुओं पर विचार करने पर निष्कर्षतः प्रतिभा ही सर्वप्रमुख काव्य हेतु सिद्ध होती है । उत्पत्ति और अभ्यास उसके सहायक तत्व माने जा सकते हैं जो काव्य रचना को पूर्णता प्रदान करने में आवश्यक है।
काव्य हेतु के संबंध में रीतिकालीन आचार्यों का दृष्टिकोण
आचार्य भिखारी दास ने काव्य रचना के लिए प्रतिभा व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों को अनिवार्य माना। उनका कहना है कि जैसे रथ एक चक्र से नहीं चल सकता उसी प्रकार केवल प्रतिभा, व्युत्पत्ति या मात्र अभ्यास से काव्य रचना संभव नहीं है।
मध्यकालीन आचार्यों में कुलपति मिश्र ने सर्वप्रथम काव्य हेतु का विवेचन किया है।
काव्य हेतु के संबंध में आधुनिक विचारकों की दृष्टि
डॉक्टर गोविंद त्रिगुणायत ने मनुष्य की मानसिकता को ही काव्य का प्रमुख हेतु मानते हुए कहते हैं कि
“मेरी समझ में काव्य की जनयित्रि मनुष्य की प्राणभूत विशेषता उसकी मनन की प्रवृत्ति है।”
इस प्रकार त्रिगुणायत प्रतिभा, व्युत्पत्ति आदि को काव्य का सहायक हेतु मानते हैं। किंतु विद्वानों का विशाल समूह साहित्य रचना के लिए प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को महत्व देता है।
डॉ सुरेश अग्रवाल ने कहा है कि “साहित्य के उदय के लिए साहित्यिक प्रतिभा और विज्ञान के आविष्कार के लिए वैज्ञानिक प्रतिभा नितांत अनिवार्य है। हां मनन शीलता इन दोनों को अधिकाधिक विकसित एवं सुनियोजित करने में बहुत सहायक होती है। इस बात में कोई संदेह नहीं। मननशीलता को हम बहुत व्युत्पत्ति और अभ्यास का समन्वित रूप कह लें तो हमारे विचार में अधिक उचित होगा।”
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