औचित्य सिद्धांत व्युत्पत्ति और अर्थ
औचित्य शब्द का उद्भव उचित शब्द से हुआ है। ‘उचितस्य भावम् औचित्य’
अर्थात जो वस्तु जिसके अनुरूप होती है उसे उचित कहते हैं। औचित्य संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य क्षेमेंद्र हैं ।
क्षेमेन्द्र काशी के निवासी थे। इन्होंने 11 वीं सदी में औचित्य संप्रदाय की स्थापना की। इनकी पुस्तक ‘औचित्यविचार चर्चा’ है।
औचित्य का शाब्दिक अर्थ उचित का भाव है।
क्षेमेन्द्र के अनुसार औचित्य काव्य का अंतरंग तत्व है। इसके बिना अन्य कोई गुण या विशेषता महत्वहीन हो जाती है । क्षेमेंद्र लिखते हैं कि
अनुचित अलंकार प्रयोग, अनुचित गुण प्रयोग, अनुचित रस प्रयोग, अनुचित रीति प्रयोग काव्य के सौष्ठव को नष्ट कर देता है ।
औचित्य के संबंध में क्षेमेन्द्र का विचार
अलंकारस्त्वालंकारा गुणा एव गुणा सदा
औचित्यम् रस शिद्धम् स्थिरम् काव्यस्यैव जीवितम
अर्थात अलंकार और गुण दो अलग-अलग तत्व है पर रस सिद्ध काव्य की स्थिरता औचित्य तत्व पर ही निर्भर करती है। अतः औचित्य काव्य का प्राण है ।
औचित्य सिद्धांत की अवधारणा
इस औचित्य तत्व के कारण ही कालिदास के कुमारसंभव महाकाव्य में शंकर पार्वती के श्रृंगार वर्णन की निंदा की गई है और तुलसी को लिखना पड़ा–
जगत मातु पितु शंभु भवानी
तेहि श्रृंगार न कहउं बखानी
औचित्य तत्व की अवहेलना के कारण ही केशवदास को हृदयहीन कहा गया। चमत्कार प्रदर्शन में काव्य के औचित्य को भूल गए और वीरह व्यथित राम को उल्लू बना डाला-
‘वासर की संपत्ति उलूक ज्यों न चितवत’
रीतिकालीन कवि पद्माकर भी औचित्य की अवहेलना कर गए अनुप्रास के चमत्कार में गलती कर बैठे
‘कहै पद्मकर परागन में पानन में पीकन पलाशन पंगत है’
इसी प्रकार मैथिलीशरण गुप्त जी साकेत में औचित्य को भूल गए गुप्तजी लिखते हैं कि
सखि नील नभस्सर से उतरा यह हंस अहा तरता-तरता
अब तारक मौक्तिक शेष नहीं निकला जिनको तरता-तरता
यहां पर हंस मोती चुगता है न कि चरता है। इस प्रकार क्षेमेन्द्र ने औचित्य की स्थापना कर उसे काव्य की आत्मा माना। काव्य में उचित ढंग के प्रयोग पर बल दिया।
औचित्य सिद्धांत से बनने वाले महत्वपूर्ण प्रश्न
🥦नंददुलारे वाजपेई औचित्य सिद्धांत को स्वतंत्र सिद्धांत न मानकर इसे विभिन्न सिद्धांतों का समन्वय माना है।
🥦रस के साथ औचित्य का संबंध स्थापित करने वाले प्रथम आचार्य आनंदवर्धन हैं ।
🥦क्षेमेंद्र के अनुसार औचित्य सिद्धांत के भेेद 27 है।
🥦भामह एवं दंडी ने क्रमशः अपने ग्रंथों काव्यालंकार एवं काव्यादर्श में उचित के पद का प्रत्यक्ष प्रयोग न करते हुए भी गुण का मूल औचित्य और दोष का मूल अनौचित्य माना है।
🥦 क्षेमेंद्र ने रस का प्राण औचित्य को माना है।
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